चोटी की पकड़–106

"मैं मुन्ना हूँ।"


"क्या काम है?"

"मैं रानी साहिबा की दासी हूँ।"

प्रभाकर स्थिर हो गया। सोचा, कोई काम है। पूछा, "फिर?'

"आप कौन हैं, यह मालूम हो जाना चाहिए।"

"यह राजा साहब से मालूम हो जाएगा।"

"वे तो चले गए हैं।"

"फिर लौट सकते हैं, या जहाँ गए हैं, वहाँ से।"

"आपके दिल में रानी साहिबा की जगह है?"

"क्या है?"

"आप जानते हैं, राजा साहब के साथ रानी साहिबा नहीं !"

प्रभाकर दुखी हुए।

मुन्ना को मौका मिला। कहा, "रानी साहिबा आपके लिए कुछ नहीं कर सकतीं अगर आप उनकी सहायता करें?"

प्रभाकर पेंच में पड़े। काट न चला। सहानुभूति आई। दिल कमजोर पड़ा। कहा, "हमारा काम दूसरा है।"

"वह कौन-सा?"

"क्या तुम और रानी साहिबा उसमें हो?"

"हाँ, हम हर तरह आपके साथ होंगे।"

"हमको दोनों की सहानुभूति चाहिए।"

"रानी साहिबा धन और जन से आपकी मदद कर सकती हैं।"

"विश्वास है। रानी साहिबा से हमारी बातचीत हो सकती है?"

"हाँ।"

"मगर आज होनी चाहिए।"

"हाँ, आपसे शाम को यहीं मिलूँगी। आपको मालूम है, रानीजी के लिए दूसरे से बातचीत करना मना है।"

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